विष्णु मंत्र का प्रभाव
विष्णु मंत्र का प्रभाव
भगवान विष्णु इतने कृपालु और दयालु हैं कि एक बार ऋषि भृगु, त्रिमूर्ति (सृष्टि, जीव और विनाश के तीन देवता अर्थात ब्रह्मा, विष्णु और शिव) का परीक्षण करना चाहते थे कि कौन सबसे अधिक सहिष्णु है.
जब उन्होंने ब्रह्मलोक और शिवलोक में अपशब्दों का प्रयोग किया, तो उन्हें विधिवत शाप दिया गया और उन्हें दंडित किया गया।
फिर वह भगवान विष्णु के निवास स्थान वैकुंठ में चला गया था और फिर प्रभु के धैर्य और सहनशीलता को परखने के माध्यम से, उन्होंने अपने पैर से प्रभु को लात मारी.
एक बार भगवान विष्णु ने ऋषि के पैरों को पकड़ लिया और कहाँ कि लात मारकर, पैर ने कुछ दर्द को आमंत्रित किया होगा और इसलिए वह अपनी परेशानी कम करना चाहते थे.
ऋषि इस बात से बहुत आश्चर्यचकित थे कि भगवान किस हद तक बेईमानी का काम कर सकते हैं, यह घटना उनके लिए यह निष्कर्ष निकालने के लिए पर्याप्त थी कि भगवान विष्णु सबसे दयालु, प्रेम करने वाले और दयालु भगवान थे.
भगवान विष्णु से प्रार्थना कर उनका आशीर्वाद बहुतायत में प्राप्त करने का यह एक बहुत ही अच्छा तरीका है.
अक्सर विष्णु जी की दैनिक प्रार्थना अर्थात रोजाना सुबह स्नान करने के उपरांत पूजा करने से सबसे सकारात्मक परिणाम प्राप्त करने की सलाह दी जाती है.
ऐसा भी कहा जाता है कि जो लोग अपनी मनोकामना पूरी करना चाहते हैं, उन्हें प्रतिदिन 108 बार परिक्रमा पूरी करके विष्णु मंत्र का जाप करना चाहिए.
श्री विष्णु पूजन की सरल विधि और नियम
सुबह जल्दी उठें, भगवान विष्णु के चित्र या मूर्ति के सामने घी का दीपक और धूप जलाएं और किसी भी प्रसाद के अलावा कुछ शुद्ध पानी और फूल अर्पित करें, जिससे आप आराम महसूस कर सकते हैं.
वेदी के सामने बैठे और मंत्र का ईमानदारी से अर्थ पर चिंतन करें, भगवान विष्णु के आशीर्वाद से आप अपनी इच्छाओं को उचित रूप से पूरा कर पाएंगे.
मंत्रों के साथ – साथ यदि आप विष्णु चालीसा का जाप करेंगे तो यकीनन ही आपको इसका फल और बेहतर प्राप्त होगा.
विष्णु चालीसा
।।दोहा।।
विष्णु सुनिए विनय सेवक की चितलाय ।
कीरत कुछ वर्णन करूं दीजै ज्ञान बताय ॥
।।चौपाई।।
नमो विष्णु भगवान खरारी, कष्ट नशावन अखिल बिहारी ।
प्रबल जगत में शक्ति तुम्हारी, त्रिभुवन फैल रही उजियारी ॥1॥
सुन्दर रूप मनोहर सूरत, सरल स्वभाव मोहनी मूरत ।
तन पर पीताम्बर अति सोहत, बैजन्ती माला मन मोहत ॥2॥
शंख चक्र कर गदा बिराजे, देखत दैत्य असुर दल भाजे ।
सत्य धर्म मद लोभ न गाजे, काम क्रोध मद लोभ न छाजे ॥3॥
सन्तभक्त सज्जन मनरंजन, दनुज असुर दुष्टन दल गंजन ।
सुख उपजाय कष्ट सब भंजन, दोष मिटाय करत जन सज्जन ॥4॥
पाप काट भव सिन्धु उतारण, कष्ट नाशकर भक्त उबारण ।
करत अनेक रूप प्रभु धारण, केवल आप भक्ति के कारण ॥5॥
धरणि धेनु बन तुमहिं पुकारा, तब तुम रूप राम का धारा ।
भार उतार असुर दल मारा, रावण आदिक को संहारा ॥6॥
आप वाराह रूप बनाया, हरण्याक्ष को मार गिराया ।
धर मत्स्य तन सिन्धु बनाया, चौदह रतनन को निकलाया ॥7॥
अमिलख असुरन द्वन्द मचाया, रूप मोहनी आप दिखाया ।
देवन को अमृत पान कराया, असुरन को छवि से बहलाया ॥8॥
कूर्म रूप धर सिन्धु मझाया, मन्द्राचल गिरि तुरत उठाया ।
शंकर का तुम फन्द छुड़ाया, भस्मासुर को रूप दिखाया ॥9॥
वेदन को जब असुर डुबाया, कर प्रबन्ध उन्हें ढुढवाया ।
मोहित बनकर खलहि नचाया, उसही कर से भस्म कराया ॥10॥
असुर जलन्धर अति बलदाई, शंकर से उन कीन्ह लडाई ।
हार पार शिव सकल बनाई, कीन सती से छल खल जाई ॥11॥
सुमिरन कीन तुम्हें शिवरानी, बतलाई सब विपत कहानी ।
तब तुम बने मुनीश्वर ज्ञानी, वृन्दा की सब सुरति भुलानी ॥12॥
देखत तीन दनुज शैतानी, वृन्दा आय तुम्हें लपटानी ।
हो स्पर्श धर्म क्षति मानी, हना असुर उर शिव शैतानी ॥13॥
तुमने ध्रुव प्रहलाद उबारे, हिरणाकुश आदिक खल मारे ।
गणिका और अजामिल तारे, बहुत भक्त भव सिन्धु उतारे ॥14॥
हरहु सकल संताप हमारे, कृपा करहु हरि सिरजन हारे ।
देखहुं मैं निज दरश तुम्हारे, दीन बन्धु भक्तन हितकारे ॥15॥
चहत आपका सेवक दर्शन, करहु दया अपनी मधुसूदन ।
जानूं नहीं योग्य जब पूजन, होय यज्ञ स्तुति अनुमोदन ॥16॥
शीलदया सन्तोष सुलक्षण, विदित नहीं व्रतबोध विलक्षण ।
करहुं आपका किस विधि पूजन, कुमति विलोक होत दुख भीषण ॥17॥
करहुं प्रणाम कौन विधिसुमिरण, कौन भांति मैं करहु समर्पण ।
सुर मुनि करत सदा सेवकाई हर्षित रहत परम गति पाई ॥18॥
दीन दुखिन पर सदा सहाई, निज जन जान लेव अपनाई ।
पाप दोष संताप नशाओ, भव बन्धन से मुक्त कराओ ॥19॥
सुत सम्पति दे सुख उपजाओ, निज चरनन का दास बनाओ ।
निगम सदा ये विनय सुनावै, पढ़ै सुनै सो जन सुख पावै ॥20॥